दलितों पिछड़ों को अपना दीपक स्वयंम बनना है

संजय जोठे
धर्म, इश्वर और आलौकिक की गुलामी एक लाइलाज बिमारी है. भारत में इसे ठीक से देखा जा सकता है. कर्मकांडी, पाखंडी और अपनी सत्ता को बनाये रखने वाले लोग ऐसी गुलामी करते हैं ये, बात हम सभी जानते हैं. लेकिन एक और मज़ेदार चीज़ है तथाकथित मुक्तिकामी और क्रांतिकारी भी यही काम करते हैं. इस विषचक्र से आज़ाद होना बड़ा कठिन है.
इश्वर आत्मा और पुनर्जन्म के नाम पर देश का शोषण करने वाले लोग अपने प्राचीन धर्म, शास्त्र, परम्परा में दिव्यता का प्रक्षेपण करते हैं. खो गये इतिहास में महानता का आरोपण करते हुए कहते हैं कि उस अतीत में देश सुखी था, सब तरफ अमन चैन था लोग प्रसन्न थे, ज्ञान विज्ञान था इत्यादि इत्यादि.
इसके विपरीत खड़े तबके भी हैं, वे क्रांति की बात करते हैं वे मुक्तिकामी हैं. वे इस इतिहास को या ठीक से कहें तो इस अतीत को नकारते हुए कहते हैं कि उस समय शोषण था, भारी भेदभाव था और अमानवीय जीवन था. इस बात को कहने वाले एकदम सही हैं. हकीकत में अतीत में भारी शोषण था, जितना आज है उससे कहीं अधिक था.
इतनी दूर तक बात ठीक है लेकिन इसके बाद एक और खेल शुरू होता है जब मुक्तिकामी भी शोषकों की तरह अपने अतीत और अपने महापुरुष और शास्त्रों में दिव्यता का प्रक्षेपण करने लगते हैं. ये एकदम गलत कदम है, गलत दिशा है. सभी महापुरुष या शास्त्र पुराने हैं. उस समय के जीवन में उनकी कोई उपयोगिता रही होगी. आज वे पूरे के पूरे स्वीकार योग्य नहीं हो सकते.
दलितों पिछड़ों में बुद्ध, कबीर आदि के वचनों को ऐसे रखा जा रहा है जैसे कि वे अंतिम सत्य हों और आज के या भविष्य के जीवन के लिए पूरी तरह से उपयोगी हों. ये वही ब्राह्मणी मानसिकता है जो अपने सत्य को सनातन सत्य बताती है. बुद्ध और कबीर को इंसान बनाइए और उनसे लगातार चलते रहने की, बार बार सुधार करने की और अपना दीपक खुद बनने की बात सीखिए. बाक़ी उनके कई वक्तव्य हैं जो हमारे लिए खतरनाक हैं. उस समय उनके समय में सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति के कारण उनका कोई उपयोग रहा होगा. लेकिन आज नहीं है.
बौद्ध ग्रंथों में स्त्रीयों और दासों के बारे में बहुत अच्छी बातें नहीं लिखी हैं. स्त्रीयों और दासों को सशर्त संघ में प्रवेश दिया गया था. कबीर की वाणी में भी स्त्रीयों को बहुत बार बड़े अजीब ढंग से रखा गया है जो आज के या भविष्य के स्त्री विमर्श से मेल नहीं खाता.
हमें बुद्ध या कबीर या किसी अन्य के उतने हिस्से को अस्वीकार करना होगा. वरना हम फिर उसी मकड़जाल में फसेंगे जिसमे इस मुल्क के सनातन परजीवी हमें फसाए रखना चाहते हैं. वे लोग वेदों उपनिषदों में दिव्यता का प्रक्षेपण करते हैं और मुक्ति कामी या क्रांतिकारी लोग बुद्ध, कबीर आदि में भी उस दिव्यता और महानता का प्रक्षेपण करने लगते हैं जो उस समय उनके जमाने में या उनके वक्तव्यों में थी ही नहीं.
जो कुछ आप भविष्य में चाहते हैं उसे भविष्य में रखिये और वर्तमान तक आने दीजिये. उसे अतीत में प्रक्षेपित मत कीजिये. वरना आप ऐसे अंधे कुंवे में गिरेंगे जिसका कोई तल नहीं मिलने वाला.
भारतीय ब्राह्मणी धर्म के षड्यंत्रों से कुछ सीखिए, उन्होंने किन उपायों से इस पूरे देश और समाज ही नहीं बल्कि आधे महाद्वीप को बधिया या बाँझ बनाकर रखा है. गौर से देखिये उन्होंने ऐसा कैसे किया है? उन्होंने अतीत को भविष्य से महत्वपूर्ण बनाकर और भविष्य से जो अपेक्षित है उसे अतीत में प्रक्षेपित करके ही यह काम किया है. अगर आप उन्हीं की तरह बुद्ध या कबीर में महानता का प्रक्षेपण करते हुए उन्हें बिना शर्त अपना मसीहा बनाने पर तुले हैं तो आप ब्राह्मणी खेल को ही खेल रहे हैं आपमें और इस मुल्क के शोषकों में कोई अंतर नहीं है. ये खेल खेलते हुए आप भारत में ब्राह्मणवाद को मजबूत कर रहे हैं.
ब्राह्मणवाद चाहता ही यही है कि आप किन्ही किताबों चेहरों और मूर्तियों से बंधे रहें, स्वतन्त्रचेता, नास्तिक, अज्ञेयवादी या वैज्ञानिक चित्तवाले या तटस्थ न बनें.
आप गणपति की पूजा करें या बुद्ध की पूजा करें - कोई फर्क नहीं पड़ता. ब्राह्मणवाद के षड्यंत्र से से आपको बचना है तो आपको पूजा और भक्ति मात्र से बाहर निकलना है.
बुद्ध कबीर रैदास या कोई अन्य हों, वे भविष्य के जीवन का और उसकी आवश्यकताओं का पूरा नक्शा नहीं दे सकते. आपको वैज्ञानिक चेतना और तर्क के सहारे आगे बढना है. किसी पुराने चेहरे या किताब से आपको पूरी मदद नहीं मिलने वाली. ऐसी मदद मांगने वालों का अध्ययन कीजिये, ऐसे लोगों को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली है. उन्होंने बुद्ध या कबीर को ही हनुमान या गणपति बनाकर पूजना शुरू कर दिया है. ये ब्राह्मणी खेल है जिसे वे बुद्ध कबीर और रैदास के नाम से खेल रहे हैं.
इस खेल को बंद करना होगा. इससे सामूहिक रूप से नहीं निकला जा सकता. इससे व्यक्तिगत रूप से ही निकला जा सकता है. अपने खुद के जीवन में पुराने और शोषक धर्म को लात मार दीजिये, पुराने शोषक शास्त्रों और रुढियों को तोड़ दीजिये और आगे बढिए. ये एक एक आदमी के, एक एक परिवार के करने की बात है. बहुत धीमा काम है लेकिन इसके बिना कोई रास्ता नहीं. सामूहिक क्रान्ति या बदलाव के प्रयास बहुत हो चुके, आगे भी होते रहेंगे. वे अपनी जगह चलते रहेंगे. उनसे कोई बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती.
जब तक दलित पिछड़े अपने घरों में देवी देवता और शास्त्र या गुरु पुराने त्यौहार या सत्यनारायन पूजते रहेंगे तब तक उन्हें बुद्ध या कबीर या अंबेडकर या मार्क्स या कोई भी नहीं बचा सकते. बल्कि इससे उल्टा ही होने लगेगा. सत्यनारायण या गणपति को पूजने वाले पिछड़े दलित बुद्ध, कबीर अंबेडकर और मार्क्स को ही हनुमान या गणपति बना डालेंगे. यही हो रहा है.
शोषक धर्मों ने घर घर में जहर पहुंचाया है, एक एक आदमी को धर्मभीरु, अन्धविश्वासी, भाग्यवादी और आज्ञाकारी बनाया है. इस बात को ठीक से देखिये. जब तक एक एक परिवार में शोषक धर्म का शास्त्र और गुरु और देवता पूजे जाते रहेंगे तब तक आपकी राजनीतिक और सामाजिक क्रान्ति का कोई अर्थ नहीं है. आप चौराहे या सड़क पर क्रान्ति का झंडा उठाते हुए अपने घरों में गुरु, देवता या शास्त्र या भगवान के भक्त नहीं हो सकते. आप इन दोनों में से कोई एक ही हो सकते हैं.
इसी तरह अगर आप बुद्ध कबीर या रैदास के भक्त बनते हैं तो आप ब्राह्मणी खेल में ही फसे हैं. इन सभी महापुरुषों की अपनी सीमाएं थीं, उनका धन्यवाद कीजिये और आगे बढिए. भविष्य में आपको अकेले जाना है. इन पुराने लोगों से प्रेरणा ली जा सकती है कि तत्कालीन दशाओं में उन्होंने अपने अपने समय में कुछ नई और क्रांतिकारी बातें जरुर की थीं. लेकिन वे बातें अब पर्याप्त नहीं हैं. भविष्य में अपने आपको ही दीपक बनाना है. अपने तर्क और वैज्ञानिक विश्लेषण बुद्धि से ही आगे बढना है. इसके अलावा कोई शार्टकट नहीं है.
यूरोप को देखिये, हजारों बुराइयों के बावजूद उन्होंने कुछ अच्छा हासिल किया है. वो किस तरह से हासिल किया है? उन्होंने पुराने धर्मों को एकदम रास्ते से हटा दिया. आज भी चर्च और पादरी हैं लेकिन वे इतिहास में घटित हुए घटनाक्रम के जीवाश्म की तरह देखे जाते हैं. लोगों की व्यक्तिगत जिन्दगी में उनका दखल बहुत कम रह गया है. इसीलिये उनके पास विज्ञान है सभ्यता है और सुख है.
भारत के दलित पिछड़ों को भी इसी लंबी और कष्टसाध्य प्रक्रिया से गुजरना है. इस यात्रा से गुजरे बिना कोई मुक्ति नहीं. ये उम्मीद छोड़ दीजिये कि धर्म परिवर्तन से या दलितों पिछड़ों की सरकार बन जाने से कुछ हो जायेगा. उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में कई बार ये सरकारें बन चुकीं. लाखों दलितों पिछड़ों ने धर्म परिवर्तन भी कर लिया. लेकिन इन सरकारों के बावजूद और इन धर्म परिवर्तनों के बावजूद आपके अपने व्यक्तिगत जीवन या परिवार मुहल्ले में क्या चल रहा है इसे देखिये. क्या वहां कोई बदलाव हुआ है?
वहां कोई बदलाव नहीं हुआ है. पुराने अंधविश्वास, कर्मकांड, पूजा पाठ, भक्ति (चाहे देवताओं की हो या बुद्ध कबीर की), इश्वर आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास जरा भी कम नहीं हुआ है.
आपको अपनी जिन्दगी में बदलाव की कमान अपने हाथ में लेनी होगी, कोई बुद्ध, कबीर रैदास या कोई शास्त्र महापुरुष आपको या आपके जीवन को नहीं बदल सकता. ये बात अपनी दीवार पर लिखकर रख लीजिये.
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संजय जोठे लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कर रहे हैं।
http://hindi.roundtableindia.co.in/index.php/features/8711-%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%9B%E0%A5%9C%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%AD%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%96%E0%A5%81%E0%A4%A6-%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%88-5

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