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गान्धी, अम्बेडकर र पुना प्याक्ट

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बिहिबार, १३ मङि्सर २०७५, ०८ : ५७  |   राजकिशोर रजक हजारौँ वर्षदेखि आध्यात्मिक फासीवादी संस्कृतिबाट त्रस्त दलित/बहुजनको जीवन अन्धकार युगमा बितिरहेको थियो। सन् १९२० को आसपास दलित/बहुजनलाई बाबासाहेब डा. भीमराव अम्बेडकरको नेतृत्व प्राप्त भयो। सन् १९३० सम्म दलित/बहुजनको संघर्षलाई गान्धी र उनको दल कांग्रेसले अधिकतम उपेक्षा गरेको देखिन्छ। आधुनिक भारतको इतिहासमा १६ अगस्ट १९३२ दलित/बहुजनका लागि ऐतिहासिक दिन हो। यो दिन ब्रिटिस सरकारले पृथक् निर्वाचन मण्डल (सामुदायिक पंचाट) को घोषणा गरेको थियो। ब्रिटिस सरकारको यो निर्णय भारतको संवैधानिक इतिहासमा महत्वपूर्ण परिघटना हो। यो निर्णयबाट भारतीयहरूको सार्वभौम बालिग मताधिकार र पृथक् निर्वाचन मण्डलबाट सामुदायिक प्रतिनिधित्वको अधिकारलाई सैद्धान्तिक मञ्जुरी प्राप्त भयो। मुस्लिम, शिखजस्तै अस्पृश्यलाई हिन्दुभन्दा पृथक् पहिचानको मान्यता प्राप्त भयो। सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक रूपबाट अलग अस्पृश्य समाजलाई तत्कालीन ब्रिटिस प्रधानमन्त्री रेमसे मैकडोनाल्डले राजनीतिक रूपमा पनि पृथक् मान्यता प्रदान गरे। डा. अम्बेडकरको योग्य नेतृत्व, उनले गोलमेच सम्मेलनमा

बाबासाहब ने कार्ल मार्क्स का मार्ग क्यों नहीं अपनाया ?

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मार्क्सवाद अथवा कम्युनिस्म का लक्ष्य केवल आर्थिक समानता है।  मैं आर्थिक उन्नति का विरोधी नहीं हु। मेरा मत है की मनुष्य-मात्र की आर्थिक उन्नति होनी चाहिए। निर्धनता के कष्टों को मैं जानता हु। अपने पिता के निर्धनता के कारन मैंने जितना कष्ट सहन किया है, उतना बहुत कम लोगों ने सहा होगा इसलिए गरीबों का जीवन जितना कष्टमय होता है, इसे मैं भलीभांति जानता हु। किन्तु मेरा विश्वास है की आर्थिक उन्नति के साथ मानसिक उन्नति भी होनी चाहिए, जिसके लिए धर्म की आवश्यकता है।  कार्लमार्क्स के सिद्धांत में धर्म का कोई महत्व नहीं है। उनका धर्म केवल यह है कि उन्हें प्रातः काल मक्खन लगे टोस्ट और दोपहर स्वादिष्ट भोजन, सोने के लिए बढिया बिस्तर और देखने के लिए सिनेमा मिले। मैं कम्युनिस्टों के निरेभौतिक और जड़ तत्वज्ञान का हामी नहीं हूं। इस संबंध में मेरे अपने विचार हैं। मेरे अपने विचार से पशुओं और मनुष्यों में अंतर है। पशुओं को चारे के सिवाय किसी और चीज की जरूरत नहीं होती किंतु  मानव शरीर के साथ मन भी है। मन का विकास जरूरी है। मन को पवित्र और सुसंस्कृत रखने के लिए धर्म की आवश्यकता है। जिस प्रकार शरीर का निरोग होना

पे बैक टू द सोसाइटी दिबस

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साहब का बचपन पंजाब राज्य के खवासपुर गांव में साहब कांशीराम का जन्म एक समान्य किसान परिवार में हुवा था । सतलुज नदी के किनारे दोआब क्षेत्र में कटली गांव के नजदीक पिता हरिसिंह जी खेती बाडी करते थे । विद्यालय शिक्षा के दौरान साहब कांशीराम अपने पिता को खेती बाडी मे सहयोग करते थे । स्कुल से आने के बाद फिर से अपने खेतों में चले जाते थे वहां आम के बाग की रखवाली करते थे । आम के पेड के निचे बैठकर पढाई करते थे । प्रकृति से जुडाब के कारण गर्मियो में पढाइ करते करते सो जाते थे । साहेब कि शिक्षा चौथी कक्षा तक मलकपुर के सरकारी स्कुल में हुई, पांचवी से आठवी तक की शिक्षा इस्लामिया स्कुल रोपड में हुई, नौवीं और दसवी की शिक्षा डीएवी पब्लिक स्कुल में तथा महाविद्यालय शिक्षा बी.एस.सी. गवर्नमेंट कलेज रोपड में पूरी हुई । अपने समुदाय के पहला व्यक्ति था जिन्होने बी.एस.सी. तक की पढाई पूरी की । मै पटबारी नहीं प्रधान मंत्री बनुंगा साहब बी.एस.सी. की पढाई पूरी करने के वाद खेत के काम में हाथ नही बंटाने लगा । एक पडोसी जमिन्दार साहब के पिता हरिसिँह जी को टोकते थे कि तुम्हारा बडा बेटा कांशीरा हट्टा–कट्टा ह

गांधी का विशैली विचार

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जाति प्रथा पर गांधी जी के विचार, १९२१–२२ के गुजराती पत्र ‘नवजीवन’ में उन्ही के द्धारा पुनर्मुद्रित भाग–दो के संपादकीय लेख गुजराती में प्रकट होते है – उनके विचारो का अनुवाद उन्ही के शब्दो में नीचे दिया गया है । श्री गांधी कहते है – (१) मुझे विश्वास है कि हिंदु समाज आज तक इसी कारण जीवित रह सका है कि वह वर्ण–व्यवस्था पर आधारित है । (२) स्वराज्य के बीज वर्ण व्यवस्था में उपलब्ध है । विभिन्न जातियां सैनिक डिभिजन की भांती इसके विभिनन वर्ण हैँ । प्रत्येक वर्ण सैनिक डिभिजन की भांती पूरे समाज क हित में काम करता है । (३) जो समाज वर्ण–व्यवस्था का सृजन कर कसता है, यसे निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि उनमें अनोखी संगठन क्षमता है । (४) वर्ण–व्यवस्था में प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिए सदावहार साधन मौजूद है । प्रत्येक जाति अपने बच्चो को अपनी जाति में शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेती है । जातियो का राजनीतिक उदेश्य है । कोइ भी जाति अपनी प्रतिनिधि सभा में अपने प्रतिनिधि चुन कर भेज सकती है । जाति अपने पारम्परिक जातीय झगडो को तय कर सकती है । प्रत्येक जाति को सैनिक टुकडी का दर्जा देकर सुरषा के लिए ज

नारी–मुक्तिको धर्मशास्त्र

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बुधबार, १० असोज २०७५, ०९ : ३९  |   राजकिशोर रजक कार्य–आधारित लैंगिक भेदभाव दुनियाँभर छ तर हिन्दू ब्राह्मण व्यवस्थाले आफ्नो खास ‘आध्यात्मिक फासीवादी’ विचारधाराबाट लैंगिक विभेदलाई संस्थागत गरेको छ । उक्त विचारधाराले सामाजिक चेतनालाई गहिरो रूपमा प्रभावित गरेको छ । कार्यस्थललाई वि–लैंगिकीकरण महिला आजादीको मूल उद्देश्य हुनुपर्ने हो तर वि–लैंगिकरणका लागि वि–हिन्दूकरण जरुरी छ । वि–हिन्दूकरण नारी विरोधी हिन्दूशास्त्रको व्यावहारिक बहिस्कारबाट सम्भव छ । नारी उत्पीडन व्यावहारिक रूपमा हिन्दू–ब्राह्मण विचारधारासँग जोडिएको छ । सतिप्रथा, कन्यादान, बालविवाह, दहेज प्रथा, नारी अशिक्षा, महिलाको सम्पत्तिबाट वञ्चित, भयको निर्माण आदि मनुवादी विचार हुन्। हिन्दू ब्राह्मण समाज वैज्ञानिक र आध्यात्मिक विचारधाराको बीचमा पुल बनाउन असफल भएको कारण हिन्दूत्वको मृत्यु भइरहेको छ । हिन्दूत्व विचारधारा आफ्नै कारणले दिन प्रतिदिन कमजोर हुँदैछ । तर्क र विश्वासबीच संवाद बनाउन सकिरहेको छैन । संसारलाई मुख्य चार आध्यात्मिक संसारका रूपमा विभाजन गर्न सकिन्छ : क) इसाई जगत्, ख) बौद्ध जगत्, ग) इस्लामी जगत् र घ) हिन्दू जगत् ।

मैं इसलिए हँस रहा हूँ क्यूंकि... – कांशी राम

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पम्मी लालोमाजरा (Pammi Lalomajra) घटना 1992 की है. साहेब चंडीगढ़ माता राम धीमान के घर रुके हुए थे. धीमान वह इंसान थे जिसे साहेब साथ लेकर सुबह के चार चार बजे तक सुखना झील के किनारे बैठकर सियासत के नक़्शे बनाते रहते थे. उस रात भी रात के करीब 11-12 बजे होंगे.साहेब बैठे बैठे अचानक हँस पड़े. धीमान ने पूछने की कोशिश की कि- साहेब जी अकेले अकेले क्यूँ हँस रहे हो ?  हंसने का कुछ कारण हमें भी बता दो. साहेब ने कहा- यदि हंसने का कारण जानना है तो चलो ,  सुखना झील चलते हैं. वहां झील के किनारे बैठकर बताऊँगा कि आज मुझे हंसी क्यूँ आ रही है.   धीमान ने कहा- साहेब जी सिक्यूरिटी ?   साहेब का हुक्म हुआ- सिक्यूरिटी यहीं रहेगी ,  सिर्फ हम दोनों ही चलेंगे. मैं कांशी राम बोल रहा हूँ साहेब और धीमान सुखना झील के किनारे आ बैठे और साहेब ने मुस्कुराते हुए कहा , " आज मैं इसलिए खुश हूँ क्यूंकि मैं उत्तर प्रदेश में जो जूता मरम्मत करने का काम करता था उसे टिकट दी और वह भी जीत गया. जो मिटटी के बर्तन बनता था वह भी जीत गया. जो साइकिल को पंक्चर लगाता था वह भी एम् एल ए बन गया. मैंने चरवाहे को भी टिकट दी और व

धर्मले देशभक्ति होइन, राजभक्ति सिकाउँछ : सिके लाल

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CK LAL  From Naya Patrika_(22 Bhadau, 2075) भर्खरै मात्र भारतीय मिडियामा नेपाल प्रसंग आएको छ, किनकि राहुल गान्धी यही बाटो मानसरोवर यात्रामा गएका छन् । गान्धीले काठमाडाैं शाकाहारी भोजन गरे कि मांसाहारी ? भारतीय मिडियाका लागि यक्ष प्रश्न बनेको छ । त्यसलाई भारतीय समाजले पनि बडो गम्भीरतापूर्वक हेरेको छ । विश्वका एकचौथाइ अति गरिब भारतसहित दक्षिण एसियामा बस्छन्, तिनको जीवनस्तर कसरी सुधार्ने ? तिनका छोराछोरीलाई कसरी उन्नत शिक्षा दिने र बिरामी हुँदा उपचारको प्रत्याभूति कसरी गराउने भन्नेमा बहस हुनुपर्ने हो । तर, मान्छेका सारा आधारभूत आवश्यकता बिर्सिएर बहस राहुल गान्धीको ‘डिनर टेबुल’मा संकुचित भएको छ । यो मनोविज्ञान किन र कसरी विकास भइरहेको छ ? विश्लेषक सिके लालसँग नयाँ पत्रिकाकर्मी  उमेश चौहान, सुजित महत र नरेश ज्ञवाली ले संवाद गरेका छन् : विज्ञान, प्रविधिले मान्छे आर्टिफिसियल इन्टलिजेन्सको युगमा प्रवेश गरिसकेको छ, तर सँगैसँगै धर्म, जात, नश्लका आधारमा विभाजन बढेको छ । मान्छेले आफू कुन धर्म, कुन जात, कुन नश्लको हुँ भन्ने सम्झन थालेको छ र त्यसैका आधारमा न्याय–अन्याय छुट्याउन थालेको छ