गांधी का विशैली विचार


जाति प्रथा पर गांधी जी के विचार, १९२१–२२ के गुजराती पत्र ‘नवजीवन’ में उन्ही के द्धारा पुनर्मुद्रित भाग–दो के संपादकीय लेख गुजराती में प्रकट होते है –

उनके विचारो का अनुवाद उन्ही के शब्दो में नीचे दिया गया है । श्री गांधी कहते है –

(१) मुझे विश्वास है कि हिंदु समाज आज तक इसी कारण जीवित रह सका है कि वह वर्ण–व्यवस्था पर आधारित है ।

(२) स्वराज्य के बीज वर्ण व्यवस्था में उपलब्ध है । विभिन्न जातियां सैनिक डिभिजन की भांती इसके विभिनन वर्ण हैँ । प्रत्येक वर्ण सैनिक डिभिजन की भांती पूरे समाज क हित में काम करता है ।

(३) जो समाज वर्ण–व्यवस्था का सृजन कर कसता है, यसे निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि उनमें अनोखी संगठन क्षमता है ।

(४) वर्ण–व्यवस्था में प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिए सदावहार साधन मौजूद है । प्रत्येक जाति अपने बच्चो को अपनी जाति में शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेती है । जातियो का राजनीतिक उदेश्य है । कोइ भी जाति अपनी प्रतिनिधि सभा में अपने प्रतिनिधि चुन कर भेज सकती है । जाति अपने पारम्परिक जातीय झगडो को तय कर सकती है । प्रत्येक जाति को सैनिक टुकडी का दर्जा देकर सुरषा के लिए जबरदस्त सेना तैयार करना जातियों के लिए सरल है ।

(५) मुझे विश्वास है कि राष्ट्रीय एकता सुदृढ करने के लिए अंतरजातीय विवाह अथवा भोज आवश्यक नहीं है । यह कहना कि इसमें सच्चाई होती, तो यूरोप में यूद्ध न होते । सहभोज उसी प्रकार गंदा है, जैसे कि मल–मुत्र विसर्जन करना । अंतर इतना है कि मल–मुत्र त्यागने के वाद हमें चैन मिलता है और खाने के वाद परेशानी अनुभव करते है । अतः जिस प्रकार हम शौच से एकंत में निवृत्त होते है, उसी प्रकार भोजन भी एकांत में ही करना चाहिए ।

(६) भारतबर्ष में भाइयो के बच्चो में पारस्परिक विवाह नहीं होते, क्या पारस्परिक विवाह न करने से उनके प्रेम में कमी आती है ? वष्णवों मे बहुत सी महिलाएं इतनी कट्टरपंथी है कि वे अपने परिवार के लोगो के साथ भोजन नही करती और न एक ही बर्तन से पानी पीना पंसद करती है क्या उनमें पारस्परिक प्रेम नही है ? जाति–प्रथा को इस कारण बुरा नहीं कहा जा सकता, क्योकि इसमें विभिनन जातियों में पारस्परिक भोज एवं पारस्परिक वाह की आज्ञा का निषेध है ।

(७) जाति–प्रथा संयम का ही दूसरा नाम है । जाति मनोरंजन पर सीमा निर्धारित करनी है । वह जातीयता की सीमा का उलंघन नही कर कसती । भिन्न जातिया रोटी–बेटी के ब्यवहार पर पहले से ही जाति बंधन मुक्त है ।

(८) जाति व्यवस्था को नष्ट करके पश्चिमी यूरोपाय सामाजिक व्यवस्था अपनाने का अर्थ होगा हिन्दू उन पैतृक पेशों को त्याग दें, जो मै अपने जीवन भर किसी को ब्राद्मण कह कर नही पुकारता, तो ब्राद्मण मे परिवर्तित होने का दैनिक क्रम शुरु हो जाएगा, तो समाज मे अब्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी ।

(९) जाति–प्रथा एक प्राकृतिक विधान है । भारतवर्ष में उसे धार्मिक रुप दिया गया है । अन्य देशो मे जहां जाति व्यवस्था की उपयोगिता इसी कमी के पलस्वरुप वे जाति व्यवस्था से होने वाले लाभ प्राप्त नही कर सकते, जबकि भारत मे वह मौजुद है ।

मेरे यही विचार है और मैं उनके विरुद्ध हुं जो वर्ण–व्यवस्था को तोडना चाहते है ।

स्रोतः बाबा साहेब डा भिमराव अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय खण्ड १६, कांग्रेस एवं गांधी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया 

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